शनिवार, 11 जुलाई 2009

"गे" .........क्या सभी हैं!

आज कल चर्चा का विषय है कि 'गे' को अधिकार दिया जाय ? यदि दिया जे तो क्यों ? और यदि न दिया जाय तो क्यों नही ?
धर्म कहता है कि यह प्रक्रित्रिक नही है। ग़लत कार्य को स्वतंत्रता देना है। ये तो जानवर भी नही करते । ईश्वर अल्ला और जीसस के कथनों के विरुद्ध है ये सब । यह बाई सेक्सुलिटी एक बीमारी है, इसका धर्म में इलाज होना चाहिए। कोई बीमार व्यक्ति यदि कहे कि हमारी बीमारी को बीमारी न मानकर इसे एक कानूनी रूप दे दो और इसे एक सभ्यता का दर्जा दे दिया जाय तो क्या दिया जाना चाहिए। इससे ऐड्स का खतरा भी बढ़ जाता है।
"गे" का कहना है कि इससे धर्म का कुछ लेना देना नही होना चाहिए। यह व्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रश्न है। जन्हाँ तक जानवर की बात है, उसमे भी कई जानवर ऐसे हैं जो बाई सेक्सुअल होतें है। इसे मानसिक बीमारी नही माना जाना चाहए।
जन्हा तक मेरा माँनना है कि, इसमे विरोध जैसी कोई बात नही। जन्हाँ तक धर्म की बात है उसमे तो ज्यादा तर ब्रम्हचारी कहलाने वाले महात्मा ही गे होते हैं। ब्रम्हचारी आपस में ही एक दूसरे ब्रम्हारी से अपनी वासना को संतुस्ट करतें हैं । जानवरों की जन्हाँ तक बात है उसमे कहना चाहूँगा कि क्या जानवर जो जो करतें हैं वही वही मनुष्य को करना चाहिए। जानवर तो २४ घंटे सेक्स के बारे में नही सोचता, वर्ष में कुछ महीने ही सेक्स करता है पर यह मनुष्य तो चौबीसों घंटे इसी के बारे में सोचता है। क्या यह अप्राक्रित्रिक नही है। कुछ लोग इसे मानसिक बीमारी का नाम दे रहे हैं। यदि ऐसा है तो दुनिया का लगभग हर एक आदमी और खास करके गृहस्थ तो ये कार्य कभी न कभी अपनी पत्नी से ही करता है । तो क्या सभी गृहस्थों को मानसिक बीमार माना लिया जाय।
इससे ऐड्स का खतरा बढ़ जाता है, मै कहता हूँ कि क्या ऐड्स के अन्य सभी कारणों पर भी इतना बवाल किया इन धार्मिक संगठनों ने, जो इस पर मचा रहे हैं ।
इसे हम पश्चिमी सभ्यता की देन मानतें हैं, जब की मनुष्यों में ये सदा से रही है, पहले लोग इसे छुपाये रखते थे, और अब ये खुला हो गया है।